रविवार, 1 मार्च 2009

ग्रामीण खिलाड़ियों का कोटा तय करना चाहिए

प्रदेश सरकार की मंशा के अनुरूप अगर खेल विभाग वास्तव में प्रदेश में ग्रामीण प्रतिभाओं को आगे लाना चाहता है तो उसे किसी भी खेल संघ को अनुदान देने से पहले प्रदेश की टीमॊ में ग्रामीण खिलाड़ियों को रखने का एक कोटा तय करना चाहिए। ऐसा किए बिना प्रदेश में ग्रामीण स्तर पर खेलों को बढ़ाना संभव नहीं होगा। आज ज्यादातर खेलों से जुडे संघ के पदाधिकारी और प्रशिक्षक महज पदक जीतने की बात करते हुए टीम में एक क्षेत्र विशेष के खिलाड़ियों को रखने की बात कहते हैं। अगर पदक जीतने के लालच में लगातार ग्रामीण खिलाड़ियों की अनदेखी की जाती रही तो क्यों कर ग्रामीण क्षेत्र के खिलाड़ी खेलों में आएंगे। एक पहल तो करनी ही पड़ेगी। और निश्चित ही यह पहल कोई भी खेल संघ करने वाला नहीं है। ऐसे में प्रदेश के खेल विभाग का यह दायित्व बनता है कि जब सरकार ने खेल नीति में यह तय किया है कि विकास खंड स्तर के खेलों का विकास करना है तो इसके लिए खेल विभाग को ही कमर कसनी पड़ेगी। फिलहाल राज्य बनने के 8 साल के बाद खेल विभाग ने भी ऐसी कोई पहल नहीं की है जिससे यह कहा जा सके कि वास्तव में खेल विभाग ग्रामीण स्तर पर खेलॊ के विकास की दिशा में काम कर रहा है। भले ग्रामीण क्षेत्रों में मैदान बनाने की बातें हो रही हैं पर अब तक कोई बड़ी पहल नहीं हुई है। जिलों में जो खेल स्टेडियम बनाने की घोषणाएं हुईं है उन घोषणाओं पर भी कुछ ही स्थानॊ पर अमल हो पाया है। इसी तरह से विकासखंड़ स्तर पर मैदान बनाने की योजना सरकार की है, पर इस पर भी कोई काम नहीं हो रहा है। ऐसे में खेल विभाग को पहले कदम पर तो प्रदेश के खेल संघों पर लगाम कसनी होगी कि किसी भी टीम में कम से 30 से 40 प्रतिशत खिलाड़ी ग्रामीण क्षेत्र के होंगे। पहले कदम पर इतना काफी होगा आगे इसका प्रतिशत समय के हिसाब के ज्यादा भी किया जा सकता है। ऐसा किए बिना कुछ होने वाला नहीं है। वैसे खेल विभाग ऐसा कुछ कर पाएगा यह आसान तो नहीं लगता है, लेकिन ऐसा करने के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के साथ खेल मंत्री सुश्री लता उसेंडी को पहल करनी होगी। इनके दखल के बिना खेल विभाग खेल संघ पर लगाम कसने वाला नहीं है। ऐसा सोचने के पीछे एक सबसे बड़ा कारण यह है कि खेल विभाग द्वारा प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण खेलों के लिए प्रदेश की जो टीमें बनाई जाती हैं उन टीमॊ में भी गांवों के कम और शहरों के खिलाड़ी ज्यादा रहते हैं। और यह छत्तीसगढ़ बनने के बाद हुआ है ऐसा नहीं है यह तो मप्र के समय से ही चल रहा है। उस समय भी राज्य चैंपियनशिप में जो जिले की टीमें चुनी जाती थीं उनमें भी शहरी खिलाड़ी ज्यादा रहते थे। वही परंपरा छत्तीसगढ़ बनने के बाद भी जारी है। खेल विभाग के ग्रामीण खेलॊ के आयोजनों में शहरी खिलाड़ियों को रखे जाने की बात को देखते हुए ही प्रदेश की खेल बिरादरी से जुड़े लोग कहते हैं कि जिस विभाग को खुद अपनी खेल नीति पर अमल के लिए कम से कम ग्रामीण खेलों में ही गांवॊ के खिलाड़ियों को रखने की जरूरत महसूस नहीं होती है, ऐसा विभाग खेल संघ पर यह दबाव किस तरह से बना सकता है कि प्रदेश की टीमों में ग्रामीण खिलाड़ी रखे जाएं। ऐसे में यह जरूरी है कि खेल विभाग पर प्रदेश सरकार का ही दबाव बने कि ग्रामीण प्रतिभाओं के हक पर किसी भी कीमत पर डाका नहीं पड़ना चाहिए। ऐसा होने के ही खेल विभाग कुछ कर पाए तो कर पाए। अब खेल विभाग क्या नीति अपनाता है, यह बाद की बात है, लेकिन यह तय है कि वास्तव में अगर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में खेलों का विकास करना है तो खेल विभाग को कोई ठोस कदम तो उठाना ही पड़ेगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह दिन भी दूर नहीं जब छत्तीसगढ़ को भी बांटने की मांग होने लगे। यहां पर यह भी बताना लाजिमी होगा कि जो बात खेलॊ में हो रही है वह बात अन्य क्षेत्रों में भी है। प्रदेश को आज जिन जिलों से ज्यादा राजस्व मिलता है उन जिलों की अनदेखी हो रही है। ऐसे में यह बात आसानी से कही और समझी जा सकती है कि एक दिन ऐसा आ सकता है कि छत्तीसगढ़ भी दो भागों में बंट जाए। और ऐसा हुआ तो वह दिन बड़ा दुखद होगा क्योंकि आज छत्तीसगढ़ का अगर विकास हो रहा है तो उसके पीछे जगदलपुर, अम्बिकापुर, कोरबा के साथ वे क्षेत्र अहम हैं जिनके राजस्व के दम पर छत्तीसगढ़ आगे बढ़ रहा है अगर ये क्षेत्र बंट गए तो छत्तीसगढ़ का विकास रूक जाएगा। अब इससे पहले की ऐसी कोई विस्फोटक स्थिति आए प्रदेश सरकार को खेलों के साथ ही हर क्षेत्र में इस बात का ध्यान रखने की जरूरत है कि किसी की अनदेखी न हो। छत्तीसगढ़ के समूचे विकास के लिए सरकार को पूरे राज्य को एक समान देखने की जरूरत है।

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