बुधवार, 18 मार्च 2009
प्रदेश के स्कूली खेलों में सब गोल माल
प्रदेश के स्कूली खेलों में इस समय नीचे से ऊपर तक सब गोल माल चल रहा है। एक तरफ जहां खिलाडिय़ों को मिलने वाले पैसे टीमें ले जाने वाले जनरल मैनेजरों की जेबों में जा रहे हैं, वहीं खिलाडिय़ों का शारीरिक और मानसिक शोषण भी किया जा रहा है। इसकी लगातार शिकायत के बाद कोई कार्रवाई तो नहीं हुई है, उल्टे नंदकुमार वर्मा के शिक्षा सचिव बनने के बाद खेलों के विकास के नाम पर खिलाडिय़ों का राज्य स्तर में भी जो भत्ता बढ़ाया गया है, उसका फायदा खिलाडिय़ों को नहीं बल्कि टीमें ले जाने वाले मैनेजरों को मिल रहा है। स्कूली खेलों में पैसों की भरमार होने के कारण यहां पर व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार होता है। यहां तो राष्ट्रीय चैंपियनशिप के साथ अब राज्य चैंपियनशिप के लिए भी टीमें ले जाने वाले जनरल मैनेजर की बोली लगती है। जो ज्यादा पैसा देता है उसको टीमें ले जाने की ठेकेदारी मिल जाती है। वैसे इधर लगातार स्कूली खेलों में हो रही गड़बड़ी के बाद शासन ने ऐसा आदेश दिया था कि अब जनरल मैनेजर के रूप में स्कूलों के प्राचार्यों को भेजा जाएगा। लेकिन इस नियम को भी किनारे करते हुए राष्ट्रीय चैंपियनशिप में खुद सहायक संचालक (खेल) ही जनरल मैनेजर बनकर चले जाते हैं। इनके खुद जनरल मैनेजर बनकर जाने का कारण क्या है यह बताने की जरूरत नहीं है। स्कूली खेलों के लिए सामानों की खरीदी में भी भारी गोलमाल हो रहा है। अपने प्रदेश में खेलों में सबसे बुरा हाल शालेय खेलों का है। यहां पर इनको देखने वाला कोई नहीं है। यही वजह है की यहां पर जहां भारी पैमाने पर मनमानी होती है, वहीं भ्रष्टाचार भी काफी होता है। इसमें कोई दो मत नहीं की शालेय स्तर पर खेलों के जानकारों के न होने का पूरा फायदा उठाया जाता है। वैसे खेलों के जानकार रहते तो उसका एक ही फायदा होता कि खेलों में तकनीकी कमी नहीं रहती, पर भ्रष्टाचार तो उनके रहते भी होता। लेकिन तब शायद यह संभावना रहती कि खेलों के जानकार कम भ्रष्टाचार करते। बहरहाल हम सबसे पहले खुलासा कर दें कि शालेय खेलों में किस तरह से कितने पैमाने पर भ्रष्टाचार होता है। जब प्रदेश की टीमें राष्ट्रीय चैंपियनशिप में खेलने जाती हैं तो इन टीमों को ले जाने के लिए एक जनरल मैनेजर बनाया जाता है। इस मैनेजर का काम तो रहता है कि जाने वाली टीमों के खिलाडिय़ों का ध्यान रखना, पर यह काम तो ये करते नहीं हैं, बल्कि उल्टे ये कभी तफरीह करने भी चल देते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि कोई टीम जब गोवा, बेंगलोर, जम्मू-कश्मीर जैसे पर्यटन स्थलों पर जाती हैं तो टीम के साथ जनरल मैनेजर बनकर जाने वाले साहब तफरीह करने चले जाते है। एक बार तो एक टीम के साथ बेंगलोर गए जनरल मैनेजर साहब टीम के खिलाडिय़ों को बेंगलौर में ही छोड़ कर गोवा के लिए विमान से उड़ गया। इस बारे में जब उनसे पूछा गया था उन्होंने शान से मान भी लिया कि हां हम तो गोवा गए थे। अब सवाल यह उठता है कि शासन ने उनको टीमों का जनरल मैनेजर बनाकर क्या इसलिए भेजा था कि वे टीमों को समस्यों में छोड़कर तफरीह करने चले जाए। जनरल मैनेजर ऐसा कर पाते हैं तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि इनको जनरल मैनेजर बनने पर इतनी ज्यादा कमाई हो जाती है कि उनको उड़ाए बिना इनका काम नहीं चलता है। यही वजह है कि जनरल मैनेजर बनने के लिए शिक्षा विभाग में बकायदा बोली लगाई जाती है। एक जानकारी के अनुसार एक बार प्रदेश की टीम का जनरल मैनेजर बनने पर हजारों में नहीं बल्कि कमाई लाख तक पहुंच जाती है। इसको एक उदाहरण से इस तरह समझा जा सकता है। मान लो टीमों को नई दिल्ली खेलने जाना है जैसे कि टीमें हर साल वहां खेलने जाती ही हैं। राष्टï्रीय स्तर पर खेलने जाने वाली टीमों के खिलाडिय़ों की संख्या 200 से 300 रहती है। अब मान लिया जाए कि एक बार में 300 खिलाड़ी दिल्ली खेलने गए। इन खिलाडिय़ों को टीए यानी यात्रा भत्ते के रूप में पर खिलाड़ी 100 रुपए मिलते हैं। ऐसे में एक दिन का भत्ता 30 हजार होता है। ये पैसे न तो खिलाडिय़ों को जाते समय मिलते हैं और न ही आते समय। जब खिलाड़ी यहां से जाते हैं तो सभी खिलाडिय़ों को यही हिदायत रहती है कि अपने घर से खाना ले आना। और सभी खिलाडिय़ों को ऐसा करना पड़ता है। कुछ बालक वर्ग के ऐसे खिलाड़ी जो थोड़े समझदार या फिर यह कहा जाए कि थोड़े से बदमाश किस्म के होते हैं वे जरूर जनरल मैनेजर से टीए के पैसे वसूल लेते हैं। लेकिन जहां सीधे-सादे बालक खिलाड़ी कुछ नहीं बोल पाते हैं, वहीं लड़कियां तो कुछ बोल ही नहीं पाती है हजार रुपए जाने के और 30 हजार रुपए आने के तो जनरल मैनेजर बचा ही लेते हैं। लेकिन इससे भी बड़ी बचत तो होती है खाने में। टीमों के लिए मेस साथ में लेकर जाते हैं। इस मेस के लिए हर खिलाड़ी के लिए 100 डीए यानी खाने के मिलते हैं। पर खिलाडिय़ों को जो खाना खिलाया जाता है, वह आधे पैसों यानी 50 रुपए का भी नहीं रहता है। अगर यह भी मान लिया जाए कि आधे पैसों का खाना खिलाया जाता है तो भी खाने में करीब 15 हजार रुपए प्रति दिन बच जाते हैं। अगर एक सप्ताह की चैंपियनशिप हुई तो करीब एक लाख रुपए बचा लिए जाते हैं। यह तो एक मात्र उदाहरण है बाहर जाने वाली टीमों के बारे में। इसके अलावा जब अपने प्रदेश में कोई राष्ट्रीय चैंपियनशिप होती है तो जहां यहां पर मेस में खाने के नाम पर वैसे ही पैसे बचाए जाते जैसे बाहर बचाए जाते, इसके अलावा यहां पर तो टेंट और सामानों के नाम पर भी लाखों रुपए का चूना शासन को लगाया जाता है। एक जानकारी के अनुसार यहां पर एक राष्ट्रीय चैंपियनशिप हुई थी तो टेंट का बिल एक लाख से ज्यादा का बनवाया गया था, पर टेंट वाले को बमुश्किल 25 प्रतिशत ही भुगतान किया गया। यही हाल खेल सामानों की खरीदी में भी रहता है। यहां पर तो जहां से सामना लिया जाता है, वहां पर बकायदा कमीशन तय रहता है। शालेय खेलों के कदम कदम पर सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार का ही काम होता है। खेलों को बढ़ाने की बात न तो कोई करता है और न सोचता है। सब यही सोचते हैं कि कहां से और कितने पैसे बच सकते हैं। नियमों की भी न तो किसी को जानकारी है, न कोई जानना चाहता है। जब राज्य चैंपियनशिप के लिए टीमें बनती हैं तो किसी जिले के खिलाडिय़ों के पास जर्सी और जूते रहते हैं तो किसी के पास नहीं रहते हैं। अगर एक जिला जर्सी देता है तो दूसरा क्यों नहीं देता है, ये बात अधिकारी भी नहीं बता पाते हैं। राष्ट्रीय खेलों में जाने वाले खिलाडिय़ों के लिए जो ट्रेक शूट लिए जाते हैं उस खरीदी में भी भारी गोलमाल किया जाता है। अभी पिछले ही साल यहां पर जब शिक्षा विभाग ने इसकी खरीदी की तो इसके बारे में ऐसा मालूम हुआ कि जिस दुकान से ट्रेक शूट लिए जा रहे हैं वह दुकानवाला नकली सामान दे रहा है। इसकी शिकायत शिक्षा सचिव के साथ उस कंपनी के पास जिस कंपनी के नाम से ट्रेक शूट दिए जा रहे थे करने के बाद यह हुआ कि उस दुकानदार को असली ट्रेक शूट देने पड़े। अगर इसके प्रति मीडिया सजग नहीं होता तो नकली सामान खिलाडिय़ों तक जाता और पैसे जाते खरीदी करने वालों की जेब में। यह तो एक मामला है तो सामने आ गया, वैसे ज्यादादर मामले सामने आते ही नहीं है। कोई खिलाड़ी यह बताने को ही तैयार नहीं होता है कि उनको मिलने वाला सामान कैसा है। ऐसे में सामानों की खरीदी करने वाले मनमर्जी करते हैं।
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