रविवार, 1 मार्च 2009
ग्रामीण खिलाड़ियों के हक़ पर डाका
छत्तीसगढ़ बनने के आठ साल बाद अब यह बात खुलकर सामने आ गई है कि अपने राज्य की खेल बिरादरी भी मप्र की राह पर चल रही है। आज प्रदेश में ज्यादातर खेलों में यह बात देखने को मिल रही है कि प्रदेश के खेल संघ मनमर्जी चलाते हुए प्रदेश की टीमों में कुछ ही स्थानों के खिलाड़ियों को रख रहे हैं। प्रदेश की खेल नीति में ग्रामीण खिलाड़ियों को बढ़ाने का जो लक्ष्य सरकार ने रखा है उस पर कोई भी खेल संघ खरा नहीं उतर रहा है इसके बाद भी सरकार से खेल संघों को साल में लाखों का अनुदान मिल रहा है। लेकिन इतना पैसे देने वाला खेल विभाग भी ग्रामीण खिलाड़ियों को बढ़ाने के लिए खेल संघों पर लगाम कसने में असफल है। ग्रामीण प्रतिभाओं की जिस तरह से अनदेखी हो रही है उस पर अगर अंकुश नहीं लगा तो एक दिन ऐसा आ सकता है जब छत्तीसगढ़ को भी बांटने की बात होने लगे। अब ऐसा हो इससे पहले सर्तक होते हुए कम से कम खेल विभाग को एक पहल करते हुए प्रदेश की टीमॊ में ग्रामीण खिलाड़ियों के लिए एक कोटा तय करके खेल संघों को इसके लिए बाध्य करना चाहिए। आज से करीब 8 साल पहले जब मप्र से छत्तीसगढ़ अलग हुआ था उस समय छत्तीसगढ़ के खिलाड़ी यह सोच कर काफी खुश हुए थे कि चलो अब उनको किसी तरह के पक्षपात का सामना नहीं करना पड़ेगा। जब मप्र था उस समय छत्तीसगढ़ के काफी कम खिलाड़ियों को ही राष्ट्रीय स्तर पर खेलना का मौका मिलता था। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि मप्र के रहते ज्यादातर खेल संघों पर इंदौर, जबलपुर, भोपाल का कब्जा था। ऐसे में इन शहरों के खेल संघों के पदाधिकारी प्रदेश की टीमों में अपने शहरों के खिलाड़ियों को ही ज्यादा रखते थे। किसी भी खेल में छत्तीसगढ़ के कुछ ही खिलाड़ियों को बमुश्किल मौका मिल पाता था। कई खेलों में तो यह भी आलम रहा कि टीम का चयन हो जाता था और छत्तीसगढ़ के खिलाड़ियॊ को पता भी नहीं चलता था कि प्रदेश की टीम का चयन हो गया। यह हाल महज ओपन वर्ग में नहीं बल्कि स्कूली टीमों में भी था। स्कूली टीमों में भी मप्र के खेल संघों के पदाधिकारियों की ही तूती बोलती थी ऐसे में उनके इशारों पर ही स्कूली टीमें भी बनती थीं। लगातार पक्षपात के शिकार हो रहे छत्तीसगढ़ के खिलाड़ियों को जब अपने राज्य के अलग होने ही खबर मिली तो सबको मानो पर लग गए। आज जब अपना राज्य अलग हो गया है और यहां पर खेल संघों की भरमार हो गई है तब भी यहां के खेल संघ भी एक तरह से मप्र के खेल संघों की राह पर चल पड़े हैं। छत्तीसगढ़ में ज्यादातर खेल संघों पर राजधानी रायपुर और खेलों की राजधानी के रूप में जाने जाने वाले भिलाई के लोगों का कब्जा है। कुछ ही खेल संघ हैं जो इनके कब्जे से बाहर हैं लेकिन ये ऐसे खेल हैं जो ज्यादा प्रचलित नहीं हैं। ओलंपिक और राष्ट्रीय खेलों से जुड़े खेलों पर तो रायपुर और भिलाई का ही कब्जा है। यहां पर भी देखा जाए तो भिलाई हर मायने में रायपुर पर भारी है। एक तो संघों की संख्या के मायने में और दूसरा खेल सुविधाओं के मायने में। यहां पर यह बताना लाजिमी होगा कि जब छत्तीसगढ़ में ओलंपिक संघ की लड़ाई चली थी तब यह बात तय थी कि भिलाई की अनदेखी किए बिना ओलंपिक संघ बनाना आसान नहीं होगा। छत्तीसगढ़ बनने के बाद शुरुआत में खेल संघों के साथ ओलंपिक संघ पर कब्जा करने के चक्कर में रायपुर में ओलंपिक संघ बना लिया गया था। बाद में इस संघ को लेकर विरोध हुआ और इस संघ को समाप्त करके नया संघ बनाना पड़ा। तब इस संघ को लेकर भिलाई से ही ज्यादा स्वर उठे थे। भिलाई को सचिव का महत्वपूर्ण पद देने के बाद ही संघ बन सका। हालांकि ओलंपिक संघ को लेकर इससे बाद भी एक लंबा विवाद चला और अजीत जोगी ने ओलंपिक संघ पर कब्जा करने के लिए विद्याचरण शुक्ल से एक लंबी लड़ाई लड़ी। बहरहाल यहां पर बात ओलंपिक संघ की लड़ाई की नहीं बल्कि प्रदेश के खिलाड़ियों के हक की बात है। रायपुर और भिलाई में ज्यादा से ज्यादा खेल संघ बनाने की होड़ में बाजी भिलाई के हाथ लगी थी और भिलाई में ही ज्यादा खेल संघ हैं। ऐसे में जब भिलाई के खेल संघ की कोई टीम बनती है तो उसमें काफी कम खिलाड़ी रायपुर के होते हैं। और जब रायपुर के संघ की टीम बनती है तो उसमें भी भिलाई के खिलाड़ियों की अनदेखी करने की पूरी कोशिश होती है, लेकिन भिलाई में खेल सुविधाओं के कारण वहां पर हर खेल के खिलाड़ी काफी हैं, ऐसे में मजबूरी में रायपुर के खेल संघों को भिलाई के कुछ ज्यादा खिलाड़ियों को रखना पड़ता है। यह तो हुई भिलाई रायपुर की बात लेकिन प्रदेश के खिलाड़ियों के हक की बात करें तो आज अपना अलग राज्य बनने के बाद महज भिलाई, रायपुर, बिलासपुर, राजनांदगांव को छोड़कर बाकी जिलों के साथ ग्रामीण क्षेत्र के खिलाड़ियॊ को कोई फायदा नहीं हो रहा है। आज जब प्रदेश की टीमें बनती हैं तो उन टीमॊ में ज्यादातर खिलाड़ी भिलाई रायपुर के ही होते हैं। दूसरे जिलों के कुछ ही खिलाड़ियों को टीमों में स्थान मिल पाता है। अब जहां तक ग्रामीण खिलाड़ियों का सवाल है तो उनके लिए प्रदेश की टीमों में स्थान पाना उसी तरह का सपना हो गया है जैसा मप्र के रहते छत्तीसगढ़ के खिलाड़ियों का हुआ करता था। इन खिलाड़ियों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इनके लिए आवाज उठाने वाला कोई नहीं है। प्रदेश सरकार ने भले अपनी खेल नीति में खेलों को बढ़ाने के लिए विकासखंड़ स्तर से खेलों के विकास की बात कही है, पर विकासखंड़ स्तर से खेलों का विकास कैसे होगा? एक तो ग्रामीण क्षेत्रों में मैदान ही नहीं है और मैदानों की कमी के बाद भी अगर वहां से खिलाड़ी निकल रहे हैं तो उनको तो खेलने का मौका ही नहीं मिल रहा है। ऐसे में किस तरह से ग्रामीण क्षेत्र में खेलों का विकास होगा, यह सोचने वाली बात है।
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