गुरुवार, 19 मार्च 2009

ओलंपियन को भी पुरस्कार के लायक नहीं समझता छत्तीसगढ़ का खेल विभाग


छत्तीसगढ़ के खेल विभाग ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया है कि उनकी मनमर्जी के आगे किसी की नहीं चलती है। एक तरफ जहां विभाग ने अपने इस साल के खेल पुरस्कारों में हॉकी के दो खिलाडिय़ों सबा अंजूम और मृणाल चौबे को राज्य के खेल पुरस्कार देकर एक अच्छा काम किया है, वहीं विभाग ने ओलंपिक में खेल चुके छत्तीसगढ़ के सपूत दिवाकर नेताम को पुरस्कार के लायक न मान कर विभाग की सोच के साथ नियमों पर भी प्रश्नचिंह लगा दिया है। ऐसा लगता है कि विभाग जब चाहता है कि इस खिलाड़ी को पुरस्कार मिलना चाहिए तो उसके लिए नियम शीथिल कर दिए जाते हैं और विभाग को लगता है कि इस खिलाड़ी को पुरस्कार नहीं देना है तो उसके सामने नियमों की किताब रख दी जाती है। ऐसा ही दिवाकर के साथ किया गया और उसके सामने पिछले साल नियमों की किताब रख दी गई और अब जबकि सबा अंजूम और मृणाल चौबे को पुरस्कार दिया गया है तो इनके लिए नियमों में शीथिलता लाई गई है।


प्रदेश के खेल विभाग में जब से खेल पुरस्कार देने का सिलसिला प्रारंभ हुआ है तभी से विभाग के ये पुरस्कार विवादों में रहे हैं। वैसे पिछले साल से यह विवाद ज्यादा गहराया है। इस साल नेटबॉल की एक खिलाड़ी को लगातार पुरस्कार देने का गुस्सा जहां खिलाडिय़ों के बीच फूटा, वहीं खेल विभूति सम्मान में चयन को लेकर भी सवाल उठे। इसी साल यह सवाल भी सामने आया कि ओलंपिक में खेलने वाले छत्तीसगढ़ के एक मात्र खिलाड़ी मुक्केबाज दिवाकर नेताम को विभाग ने नियमों का रास्ता दिखाते हुए उनको पुरस्कार से वंचित कर दिया। विभाग का यह फैसला नियमों के लिहाज से सही था। लेकिन अब जबकि 2007-08 के खेल पुरस्कारों की घोषणा की गई है तो इनमें उन दो खिलाडिय़ों मृणाल चौबे के साथ सबा अंजूम को भी शामिल किया गया है। नियमों के हिसाब से इनकी पात्रता भी पुरस्कार की नहीं बनती है, लेकिन इनको पुरस्कार देने के लिए नियमों में शीथिलता लाई गई है। विभाग की यह पहल काफी अच्छी है। पिछले अंक में खेलगढ़ ने ही यह मामला उठाया था कि इन खिलाडिय़ों को प्रदेश के खेल पुरस्कार मिलने चाहिए। खेल विभाग की इस पहल को खेलगढ़ की ही जीत माना जा रहा है। लेकिन यहां पर सवाल यह उठता है कि जब विभाग नियमों को शीथिल करवाने की क्षमता रखता है तो फिर विभाग ने यह काम पिछले साल तब क्यों नहीं किया जब ओलंपियन दिवाकर ने पुरस्कार के लिए आवेदन किया था। खेल विभाग के आलाअधिकारी कहते हैं कि इस बार अगर दिवाकर ने भी आवेदन किया होता तो उनको पुरस्कार मिल जाता। यहां पर सोचने वाली बात यह है कि जब एक बार किसी खिलाड़ी को नियमों की किताब दिखाकर उसको यह कह दिया गया हो कि आप तो पुरस्कार के पात्र ही नहीं हैं तो ऐसे में वह खिलाड़ी दूसरी बार क्यों कर आवेदन करेगा। यहां पर तो खेल विभाग का काम था कि वह ऐसे खिलाड़ी को सूचना देता या फिर मीडिया के माध्यम से यह खबर प्रकाशित करवाई जाती कि इस बार नियमों को शीथिल किया जा रहा है ऐसे में ऐसा कोई भी खिलाड़ी आवेदन कर सकता है जो मूलत: छत्तीसगढ़ का है और वह अपनी नौकरी की वजह से किसी दूसरे संस्थान से खेलता है। लेकिन विभाग ने ऐसा कुछ नहीं किया। विभाग की इस बात को लेकर यह चर्चा है कि विभाग अपनी मर्जी से उन खिलाडिय़ों को पुरस्कार देने का काम कर रहा है जिन खिलाडिय़ों को वह पुरस्कार देना चाहता है। हमारा यहां पर सबा अंजूम और मृणाल चौबे को पुरस्कार देने का कतई विरोध नहीं है। ऐसा रहता तो खेलगढ़ कभी इनके नाम की पहल अपने पिछले अंक में नहीं करता। खेलगढ़ ही है जिसने सबसे पहले यह मुद्दा उठाया था कि छत्तीसगढ़ के ऐसे खिलाडिय़ों को भी पुरस्कार देना चाहिए जो वास्तव में छत्तीसगढ़ के मूल निवासी हैं और किसी कारण से अपने राज्य के स्थान पर रेलवे जैसे संस्थानों में खेलने के लिए मजबूर हैं। ऐसे ही खिलाडिय़ों में मृणाल चौबे के साथ सबा अंजूम का नाम है। इनको पुरस्कार देने के लिए खेल विभाग साधुवाद का पात्र तो है, साथ ही दिवाकर को पुरस्कार से वंचित करने के लिए आलोचना का भी पात्र है। दिवाकर को खेल पुरस्कार से वंचित रखना यह अपने राज्य के साथ पूरे देश के लिए दुर्भाग्यजनक है। दिवाकर ऐसे मुक्केबाज रहे हैं जिन्होंने एथेंस ओलंपिक में भारत का नाम ऊंचा किया था। आज अगर बीजिंग ओलंपिक में भारत के तीन मुक्केबाज क्वार्टर फाइनल में पहुंचे और एक मुक्केबाज विजेन्दर कुमार ने पदक जीतने में सफलता प्राप्त की है तो इसके पीछे कहीं न कहीं दिवाकर का वह जोश और जज्बा भी है जो उन्होंने एथेंस ओलंपिक में दिखाया था। तब दिवाकर ओलंपिक में दूसरे चक्र में पहुंचने वाले भारत के अकेले मुक्केबाज थे। अब इसका क्या किया जाए कि दिवाकर की इतनी बड़ी उपलब्धि को प्रदेश का खेल विभाग कुछ समझता ही नहीं है। खेल विभाग के आलाअधिकारियों की नजरों में तो एक टीम खेल में पदक जीतने ज्यादा मायने रखता है, फिर उस पदक के पीछे पुरस्कार पाने वाले खिलाड़ी की मेहनत हो या न हो। यह अपने आप समझने और सोचने वाली बात है कि एक टीम खेल में कोई भी पदक एक खिलाड़ी के दम पर नहीं मिलता है। एक पदक के लिए टीम के सारे खिलाडिय़ों को मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन एक व्यक्तिगत खेल में एक मैच भी जीतने किसी पदक से कम नहीं होता है। वैसे भी ओलंपिक में खेलने की पात्रता पाना ही बहुत बड़ी बात है,लेकिन खेल विभाग में बैठे अधिकारियों की सोच तो कहीं और ही जाती है, उनको तो अपने ऐसे नियमों से मलतब है जो नियमों को खिलाडिय़ों को प्रोत्सोहित करने वाले कम और हताश करने वाले ज्यादा हैं वैसे भी जहां तक हमारा मानना है कि अगर खेल विभाग ने दिवाकर को पुरस्कार के लायक नहीं माना है तो यह उस खिलाड़ी का नहीं खेल विभाग का दुर्भाग्य है। दिवाकर में जिस तरह की क्षमता है उस क्षमता के दम पर वह आज नहीं तो कल देश का सर्वोच्च सम्मान अर्जुन पुरस्कार भी जीत सकता है। हम सोचते हैं कि दिवाकर को प्रदेश के पुरस्कार के स्थान पर अब नजरें अगले ओलंपिक के साथ अर्जुन पुरस्कार पर लगानी चाहिए। दिवाकर में जैसी क्षमता है उससे यह आसानी से कहा जा सकता है कि यह खिलाड़ी कुछ भी कर सकता है। दिवाकर के खेल जीवन पर नजरें डालें तो मालूम होता है कि उनको उनके पिता श्री नेताम ने 1995 में महज 10 साल की उम्र के एक मुक्केबाजी क्लब के हवाले कर दिया। यहां से शुरू हुआ दिवाकर की प्रतिभा को निखारने का काम। दिवाकर को भी यह क्लब इतना रास आया कि उन्होंने अपने को धर्मेन्द्र की तरह राष्ट्रीय हीरो के रूप में स्थापित करने के लिए दिन-रात मेहनत की। चाहे कैसा भी मौसम रहा हो दिवाकर ने कभी भी अभ्यास में जाने से मन नहीं चुराया। दिवाकर की मेहनत ने रंग दिखाया और दो साल बाद ही उनका राष्ट्रीय हीरो बनने का सपना तब सच साबित हो गया जब 1997 में भिलाई में जूनियर राष्ट्रीय चैंपियनशिप का आयोजन किया गया। यहां पर दिवाकर ने राष्ट्रीय चैंपियन बनने का कमाल दिखाया और स्वर्ण पदक जीतने में सफलता प्राप्त की। यहां से शुरू हुई उनकी सफलता की कहानी अब तक जारी है। अपने 9 साल के खेल जीवन में वे अब तक लगातार 9 सालों से राष्ट्रीय चैंपियन बनते रहे हैं। उनके खाते में 50 से ज्यादा पदक हैं। इन पदकों में कई अन्तरराष्ट्रीय पदक भी हैं। उनको अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पहली बार 2002 में खेलने का अवसर मिला। क्यूबा में हुई जूनियर विश्व चैंपियनशिप में उन्होंने पदक जीतने में सफलता प्राप्त की। इसी साल जर्मनी में उन्होंने एक अन्तरराष्ट्रीय चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक के साथ सर्वश्रेष्ठ मुक्केबाज का खिताब भी जीता। दिवाकर को 2003 में सीनियर वर्ग में खेलने का मौका मिल गया। राष्ट्रीय चैंपियनशिप में पदक जीतने के बाद उन्होंने एफ्रो-एशियाई खेलों में भी पदक जीता। इसके बाद आया वह समय जब 2004 में दिवाकर ने एथेंस ओलंपिक में देश का नाम रौशन किया। जब दिवाकर एथेंस ओलंपिक में खेलने गए तो उनकी उम्र महज 19 साल थी। इस छोटी सी उम्र में उन्होंने भारत की तरह से सबसे बेहतरीन प्रदर्शन किया। जब भारत के सब मुक्केबाज फेल हो रहे थे तो दिवाकर ने अपने बैटमवेट वर्ग में पहले चक्र के मुकाबले में मोरक्को के हामिद आइत को 25-17 से मात देकर भारतीय खेमे में खुशी बिखेर दी। दिवाकर भले एथेंस से कोई पदक नहीं ला सके, लेकिन उनके खेल की देश भर में तारीफ हुई। अपने गृह नगर लौटने पर उनका जहां जोरदार स्वागत हुआ, वहीं राज्योत्सव के समय उनका सम्मान गृहमंत्री रामविचार नेताम ने किया और उनके खेल की तारीफ की।

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